Friday, December 11, 2009

मोबाइल महाकाव्य

एक बार कहीं चलते चलते,
एक बात मुझे पता चली।
आज भी है कुछ जगह ऐसी,
मोबाइल को लेकर जहाँ मची रहती है खलबली।
तभी सोचा, क्यों न इसकी महिमा पर एक काव्य बनाऊं,
और इस यंत्र पर जुल्म करने वालो के कान में,
इसकी महिमा पहुँचाऊँ।

सुने, समझे और इसकी महिमा को दुनिया तक पहुंचाएं....--
....

मोबाइल की महानगाथा,
आज कहकर हम बतलाते।
इस यन्त्र के बिना आज के युवा नही जी पाते।।
क्यों बढ़ गई इस यन्त्र की आज,
जग में इतनी महिमा।
इसी यन्त्र ने बढ़ा राखी है,
आज सबकी समाजिक गरिमा।
एक बात तो सच है कि-
इसने दूरी के अन्तर को पाटा,
भले ही वर्तमानं में इसने,
पहुँचाया थोड़ा संस्कृति को घाटा।
अगर हम भारतवासी इस तकनीकी को पहले जान पाते,
तो-
रामायण, महाभारत जैसे युद्ध,
मिनटों में ही सुलझ जाते।
इतने बड़े बड़े इस भूमि पर कभी न होते युद्ध,
बातों से ही शांत हो जाते सारे क्रुद्ध।
आइये,
आपको लिए चलते है ऐसे ही एक युग में,
राम जी के साथ रावण था जिस युग में।
सीता अपहरण का मामला जल्दी ही सुलझ जाता,
यदि राम जी के हाथ ये यन्त्र लग जाता।
ना होती जरूरत सुग्रीव कि,
और ना होती जरूरत हनुमान की,
इस यन्त्र से ही पता हो जाती माँ जानकी।
एक कॉल करके रावण से मांडवाली हो जाती,
सोने की लंका बेचारी जल न पाती।
अब आप ही सोचिये जनाब कि,
कितना जरूरी है ये आधुनिक यन्त्र मोबाइल,
जो बन बैठा है वर्तमान में जीने का स्टाइल।
अब थोड़ा आगे चलते ही आता त्रापर युग,
जिसे याद करते रहेंगे आने वाले युग।
उस युग ने कृष्ण, कंस और कौरवों कि गाथा गई थी,
ल्व्किन अगर होता मोबाइल उस वक्त,
तो पांडवों कि शामत आई थी।
बेचारे पांडव कौरवों से कभी नही जीत पाते,
क्यों कि बेचारे रणभूमि में ही नही पहुँच पाते।
टूट जाता बार बार उनका अज्ञात वास,
जो रहता मोबाइल उस वक्त दुर्योधन के पास।
नेटवर्क भी हिता इतना हाई कि,
अज्ञात वास करते करते पांडवों को याद आ जाती माई।
कृष्ण जी कि भी बातें हो जाती टेप,
और युद्ध कि निति खुल जाती,
बेचारी द्रोपदी जिन्दगी भर चोटी न बना पाती।
बात पहुंचती चलते चलते आज के पावन युग में,
इसी यन्त्र का ही बोलबाला है इस कलयुग में।
रामराज्य की भूमिका को इसने जामा पहनाया है,
इस यंत्र ने इन गतिविधियों को और बढाया है।
सभी कामो को मिनटों में देता ये अंजाम,
यवो के मुख पर रहता हरदम इसका नाम।
रात रात भर बातें करते,
सारे दिन ये सोते।
इसकी महिमा से ही ,
कॉलेज में period नही होते।
प्रोफेसरों को भी मिल जात है आराम का बहाना,
इसलिए सभी ने इस यंत्र की महिमा को पहचाना।
लेकिन आज भी कई कॉलेज ऐसे है,
जहाँ ये यंत्र युवाओ से कोसो दूर है,
बेचारा अपनी तन्हाई में जीने को मजबूर है।
क्यों की युवाओ के सहयोग से ही बढती इसकी शान,
कॉलेज प्रशाशन के खड़े हो जाते है एक दम कान।
जिसके लिए आते है फिर समाया समय पर संशोदित सविंधान,
जो कर देता है बेचारे विद्यार्थियों की नींद हराम।
अब आप ही बाताएं-
छोड़ दे बेचारे ये युवा कुछ भी किसी के कहने से ,
कैसे छोड़े अपनी जान को,
सोचते रहते हर पल कि,
कैसे पहुंचाए कॉलेज प्रशासन तक,
इस यंत्र उपयोगी ज्ञान को।
नही होती हिम्मत किसी की,
क्यों की रहता अनुशासन समिति का डंडा,
लेकिन मुझे आज तक समझ में नही आया ये फंडा।
आख़िर इस २१वी सदी में क्यों कहीं भी इस यंत्र पर इतना जुल्म है,
क्या पर्तिबंध लगाने वाले लोंगो को कुछ इल्म है।
कौन किसी से रह रहा कितनी दूर है,
जो अपने पालो को अपनों से शेयर करने को भी मजबूर है।
काश...! अगर हर पल हो नये मोबाइल इन् विधार्थियों के पास,
बना लेते अपने हर दुःख सुख के पलों को अपनों के साथ खास।
जब चाहते अपनों से बातें कर पाते,
कभी एयरटेल और कभी वोडाफ़ोन संग बातों में रंग भर पाते।
लेकिन फिर वही प्रशासन इन् बातों पर सफाई देता है,
इसमे हमारे प्यारे विधार्थियों की ही है भलाई,
पता नही क्यों उन्हें हमारी बात समझ में नही आई,
इस यंत्र को उनसे दूर करने में नही हमारा दोष,
पता नही विधार्थियों को क्यों आता है हम पर ही रोष,
उनकी गलतियाँ ही उन् पर प्रतिबन्ध बन कर आई है,
गेहूं के साथ तो होती आई घुन की पिसाई है।
खैर इनका पक्ष विपक्ष तो लंबा बढ़ता जाएगा,
इनकी बातों ही मेरा कलम थक जाएगा।
अब आख़िर में लिए चलते है आपको एक ऐसे गाँव में,
जहाँ मोबाइल आज भी है एक सपना।
लेकिन खुमारी है इस यंत्र की इतनी कि एक बात याद है आई,
आपको भी बता दूँ ये किस्सा, ये बात समझ में आई।
कि आज भी-
एक राज्य के, एक जिले के, एक तहसील के , एक शहर के,
एक कसबे के, एक गाँव के, एक मोहल्ले के, एक घर में----
एक लड़की थी अनजानी सी,
मोबाइल लेकर चलती थी।
नज़रें झुका के, शरमा के,
मोबाइल में ना जाने क्या देखा करती थी।
पर जब भी मीलती थी मुझसे,
यही पूछा करती थी कि
सूर्य प्रकाश जी
ये on कैसे होता है, ये on कैसे होता है,
और मैं, मैं बस यही कहता था कि ------ बेटा----
ये मोबाइल नही टी.वी का रिमोट है.....!!

धन्यवाद्
अब मैं नहीं "हम"