Wednesday, December 16, 2009

हमारा देव संस्कृति विश्वविधालय, हरिद्वार: एक नज़र

सबके लिए खुला है, ये विश्वविधालय हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
देव संस्कृति का आधार लेकर, हुई है सरंचना इसकी.
शिक्षा और विद्या के समन्वय का, यहाँ अकल्पनीय होगा नज़ारा.
मतभेद को भुलाता, ये विश्वविधालय हमारा.
चाहे आयें सभी ही पंथी, चाहे आये सभी ही धर्मी.
सभी आने वाले देशी और विदेशियों का, मस्जिद भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
मानव का धर्म क्या है, मिलती है राह इसमें.
सिखाता है सेवा करना, गिरिजाघर भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
गुरुवार कि अमरवाणी और, तपशक्ति का अंश यहाँ पर.
सब जन है बहन-भाई. रहते है मिलजुलकर.
सभी देव शक्तियों का, मिलता है पल पल सहारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
सभी ऋषि सत्ताओं का निरंतर, होता है भ्रमण यहाँ पर.
मिलती है प्रतिपल शांति, ये गुरुद्वारा भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
मतभेद होने पर भी, मन में भेद नहीं होता.
अखंड एकता का है गवाह, ये प्रेम का मंदिर हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
करते है सभी साथ मिलकर, रोज़ प्रार्थना यहाँ पर.
सोते है प्रार्थना की धुन पर, जागते है प्रार्थना पर.
ये नहीं केवल अध्ययन केंद्र, अपितु गर्व भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
ग्रामोत्थान का आधार लेकर, गावों के विकास का सपना है.
इंटर्नशिप यहाँ एक बंदिश नहीं, हर विद्यार्थी का फैसला अपना है.
गुरुवर का सपना ही, अब सपना है हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
गुरुवर की वाणी जाने हर जा, मिलकर करेंगे पर्यत्न ऐसा.
बनेंगे युग परिवर्तन की कड़ी, अब ये संकल्प है हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
सबके लिए खुला है, ये विश्वविधालय हमारा.
अब मैं नहीं "हम" 

सबसे बड़ा लोकतंत्र या फांसीवादी लोकतंत्र...?

"अक्सर मैं बहुत खुश होता हूँ कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, लेकिन कभी कभी सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि क्या वास्तव में हम उस लोकतंत्र में रहते है, जिसके सविंधान में समानतावादी समाज की विस्तृत व्याख्या की गयी है....?"
कभी कभी मैं सोचता हूँ कि,
मैं किस देश में रहता हू.
सच बताऊँ तो मैं इसे,
वास्तविक लोकतंत्र कहता हूँ.
सबकी अपनी मर्जी और,
सबका अपना काम है.
किसी को अल्लाह की पनाह ,
किसी का आसरा राम है.
लोकतंत्र पद्धति की,
इस देश में सरकार हैं.
जो नेताओं के तंत्र मंत्र का शिकार है.
"हमारे देश भारत में कभी धर्म के अनुसार राजनीति का संचालन होता था..लेकिन अब राजनीति के आधार पर धर्म का संचालन होता है, जो क्या हमारी धर्मनिरपेक्ष संविधान प्रणाली पर सवाल खड़ा नहीं करता...?"
यहाँ नेता धर्म को बना खिलौना,
राजनीति से खेलते है.
कहीं राम का मंदिर और,
कहीं मस्जिद गेरते है.
आज नेता ही वोटो के लिए,
सम्प्रदायिकता  फैलाने को तैयार हैं.
धन ही उनका धर्म-कर्म और.
धन ही उनके जीवन का आधार है.
 "अब हम बड़े गर्व से कहते हैं की हम हिन्दुस्तान में रहते है, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है...लेकिन...?"
हिन्दुस्तान में ही,
हिंदी भाषियों का रहना दुशवार है,
राज ठाकरे जी को केवल,
महाराष्ट्र से प्यार है.
कहीं असम में हिन्दू हत्या,
कहीं हिन्दू संतों पर अत्याचार है.
क्या यही हिंदुस्तान का,
हिन्दुस्तानियों से प्यार है.
"गांधी-नेहरु जैसे भारत के मजबूत स्तंभों ने भयमुक्त समाज की संकल्पना की थी....पर यहाँ भी निराशा है..? "
आज बढ़ते जुर्मों के आगे.
कानून व्यवस्था नाकाम है.
छूटती जा रही,
मजबूत राजनीति की लगाम है.
नहीं है किसी डर, संविधान और कानून का.
पर क्या करें दोस्तों,
यही तो आज कल इस सबसे बड़े लोकतंत्र की शान है.
"रूढ़िवादिता की बात करें, तो वो हमेशा से इस देश के मूल में रही है लेकिन संविधान में समानतावादी समाज की स्थापना के संकल्प को दरकिनार कर हमारे देश के नेताओं ने जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसी विकराल सामाजिक समस्याओं को पोषण दिया है"
गांधी नेहरु के इस देश में,
विषमता इस तरह हावी है.
जाती, धर्म और क्षेत्र के मुद्दों पर,
चलती व्यवस्था हमारी है.
आराक्सम के मुद्दों को उठाकर,
ये नेता वोट पाते है.
अपने स्वार्थ की खातिर,
समाज को बाँट जाते है.
धन वाले और धनि हो रहे,
गरीबों पर पड़ रही महंगाई, मंदी की मार है.
पर क्या करें बंधुओं..
यही हमारी सरकार है.
"अब यहाँ देखे की जिसने इन् नेताओ को चुनकर भेजा है, अब जब वही अपनी समस्या लेकर उनके पास जाते है, तब..."
रिश्वत लेकर ही वे,
जनता का काम करते है.
भूल जाते है वो कि,
इनके वोटों से ही मंत्री बनते है.
जो संसद में ही,
लात घूंसे चलते है.
कभी धर्म और कभी आरक्षण के मुद्दों पर,
जनता को आपस में लड़ाते हैं,
जनता के लिए ऐसे नेता,
क्या कर पायेंगे.
2-4-5 सालों में,
अपनी जेबें भरकर ले जायेंगे.
अपनी जाति के लोगो को ही ये नेता,
कुछ प्राथमिकता देते है,
बाकी लोग तो हमेशा,
इनके ऑफिसों के चक्कर काटते रहते है.
"अब जब ये जनता के प्रतिनिधि जनता का काम ही नहीं करते, तो आखिर करते क्या है....?"
अपनी कुर्सी इन्हें जनता से प्यारी है,
जिसके लिए अब संसद में भी,
मचती मारामारी है.
भाषण देकर कहते है कि,
हम जनता के, जनता हमारी है.
जनता को भड़काते रहते,
इनका कोई ईमान नहीं.
धनवालों के पीछे रहते ,
आम जनता का कोई ध्यान नहीं.
"आखिर कब तक इनकी एक्टिंग जनता के सामने चलती, अब जब नेताओ कि पोल खुलने से जनता का विश्वास इन् नेताओ पर से उठने लगा तो इन् राजनितिक पार्टियों अब एक नया दांव खेलना शुरू किया है...?"
अब जब ये नेता भीड़ जुटा नहीं पाते है,
तो अपनी पार्टी में,
फ़िल्मी सितारों को ले आते है.
भोली भाली जनता को कभी अमिताभ,
तो कभी संजय दत्त से बेवकूफ बनाते है.
झूठा अभिनय करने से भी,
इन् नेताओं कि जान छूट जाती है.
देश की आम जनता बेचारी,
फिर बेवकूफ बन जाती है.
सामाजिक समस्या के मुद्दें,
जस के तस रह जाते है.
ये नेता बेचारी जनता को हरदम,
जातिवाद और क्षेत्रवाद में उलझा कर चले जाते है.
"तो क्या हम हमेशा लोकतंत्र के नाम पर ऐसे ही जीते रहेंगे, क्या गांधी नेहरू का ये देश ऐसे ही चलेगा...? नहीं अगर केवल एक कदम हम बढाएं तभी कुछ बदल सकता है..,  तभी इस लोकतंत्र  की विषमताओं से छूटकारा मिल सकता है,  अब हमें ही बढ़ाना होगा  कदम हमारे सुनहरे भविष्य के लिए..."
कब तक हम सोते रहेंगे,
इन् जातिवादी नेताओं को वोट देते रहेंगे.
अब जातिवाद और क्षेत्रवाद को पीछे छोड़,
विषमताओं पर प्रहार करेंगे.
इन् सितारों की चमक से निकलकर,
अँधेरी दुनिया को रोशन करेंगे.
आओं दोस्तों, आज से हम और आप....
परिवर्तन की नयी बयार,
अब लाने को तैयार हो.
सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन को,
अब हर जन तैयार हो..
अब हर जन तैयार हो..
अब हर जन तैयार हो..
वन्दे मातरम
अब मैं नहीं "हम"