Wednesday, December 30, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
30-दिसम्बर-2009

"उन्हें मत सराहो जिन्होंने अनीति पूर्वक सफलता पाई और संपत्ति कमाई है"                              पं श्री राम शर्मा आचार्य  

Tuesday, December 29, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
29-दिसम्बर-2009


"सत्य परेशान ज़रूर होता है परन्तु पराजित नहीं "
                                                                     स्वयं का अनुभव
                                            प्रेरणास्त्रोत: पं श्री राम शर्मा आचार्य

Monday, December 28, 2009

Movies related to College



Classes : Kabhi Kabhi
Course : Godzila
Exam : Style
Exam Hall : Chamber of Secrets
Examiner : Mrityudata
Exam Time : Kayamat se Kayamat tak

Viva : Encounter
Question Paper : Paheli
Answer Paper : Kora Kagaz
Cheating : Aksar
Marks : Asambhav
Paper correction : Andha Kanoon
Paper Out : Plan
Last Exam : Independence Day
Result : Sadma

Pass : Ajooba
Fail : Devdas
Vacation : Masti
Supplementary : Aakhri Rasta





The Story of Relations

वफाओं का सिला
वो शख्स जब से गया फिर कभी मिला नहीं,
ऐसा बुझा चिराग मेरा कि आज तक जला नहीं.
ज़माना इस दस्तूर को कहता है बेवफाई,
मगर मुझे उस शख्स से आज तक कोई गिला नहीं.
खुल गया दरवाज़ा मेरा ये कैसी हवा चली,
पेड़ों का तो एक भी पत्ता हिला नहीं.
जाने कैसा हो गया फिजाओं का दस्तूर आज,
एक कली भी मुस्काई नहीं, एक फूल भी खिला नहीं.
सारे ज़माने से तुने  वफ़ा की ए "सूर्य प्रकाश",
क्या ये सब तेरी वफाओं का सिला तो नहीं.
बस "अब मैं नहीं हम"

"मैं" का एक और रूप ...
चारों तरफ है नज़ारा उसी का,
यारों मुझे बस सहारा उसी का.
जिस पर भी हो गया हुस्न मेहरबान,
धरती आकाश में बस सितारा उसी का.
जो बसा था  मेरे दिल में था अपनों की तरह,
मेरी तबाहियों में हाथ सारा उसी का.
कितनी बेवफाई है उसकी हर एक अदा में,
जिधर भी देखिये नज़ारा उसी का.
ऐ 'संजू" सभी तो दुनिया में वफ़ा नहीं करते,
जो कुछ भी है ज़हां में सारा उसी का.
तभी बस "अब मैं नहीं हम"




~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
२८-दिसम्बर-२००९

"कुदरत उसे ही सब कुछ देती है, जो अपना सब कुछ समर्पित करने के लिए सदैव अग्रसर रहता है."                                          
                                                                              स्वयं का अनुभव : 
                                                       प्रेरणा - पं श्री राम शर्मा आचार्य 

Real Life

कभी कभी दूर निकल जाने को दिल करता है......
कभी कभी दूर निकल जाने को दिल करता है,
सच बताऊँ....
तो इस शहर को छोड़ जाने का दिल करता है.
इस शहर ने दिए है कई ज़ख्म ऐसे
कि जो वक़्त के साथ भी न भरेंगे.....
कभी कभी उन ज़ख्मों को सहलाने का दिल करता है,
सच बताऊँ
तो इस शहर को छोड़ जाने का दिल करता है.
कभी सोचा न था कि कोई भूल गया हमें तो क्या......
हम न कभी किसी को भूलेंगे....
मगर अब सब कुछ भूल जाने का दिल करता है.
सच बताऊँ..
तो इस शहर को छोड़ जाने का दिल करता है.
वादा किया था हमने उस परमात्मा से,
कि कभी आंसूं न बहायेंगे.....
मगर अब वादा तोड़कर आंसूं बहाने को जी करता है.
सच बताऊँ..
तो इस शहर को छोड़ जाने का दिल करता है..
कभी कभी दूर निकल जाने का दिल करता है.
 बस "अब मैं नहीं हम"



Thursday, December 24, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
24 -दिसम्बर-2009 

"जीवन का अर्थ है 'समय'...जो जीवन से प्यार करते है वो आलस्य में समय न बिताएं"             पं. श्री राम शर्मा आचार्य

Wednesday, December 23, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
23 -दिसम्बर-2009

"अपना मूल्य समझे और विश्वास करें की आप संसार क्र सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है."                  पं. श्री राम शर्मा आचार्य

Tuesday, December 22, 2009

~ विचार: जो युग परिवर्तन कर दें ~
22 -दिसम्बर-2009 

"असफलता केवल यही सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया."   पं श्री राम शर्मा आचार्य
~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
21 -दिसम्बर-2009

"पाप अपने साथ रोग, शोक और पतन लेकर आता है."  
                                                                         पं श्री राम शर्मा आचार्य

Sunday, December 20, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें "
20 -दिसम्बर-2009

"कुकर्मी से बढ़कर अभागा कोई नहीं, क्यों की विपत्ति में उसका कोई साथ नहीं देता."                   पं श्री राम शर्मा आचार्य

Saturday, December 19, 2009

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
19 -दिसम्बर-2009

"पढने योग्य लिखा जाए, उससे लाख गुना बेहतर है की लिखने योग्य किया जाए."                          पं. श्री राम शर्मा आचार्य

Friday, December 18, 2009

"जिन्दगी और इंसान की पल पल बदलती सच्चाई"

"वफाओं से तौबा"
 अक्सर ऐसा होता है कि भूल जाते हैं लोग,
करीब आकर ही दूर जाते है लोग.
वादा करते हैं उम्र भर साथ निभाने का,
फिर इतनी जल्दी क्यों बदल जाते है लोग.
वक़्त गुजरता रहता है अपने रोते रहने से,
इतना गम सहकर भी कैसे हंस लेते है लोग.
ऐ-संजू दिल लगाता है बार बार क्यों,
एक दिन बेगाने हो जाते हैं अपने ही लोग.
अब मैं नहीं "हम" 

"अपनों में परायापन"
 अपनेपन का कुछ यूं सिला देते है लोग,
बिठाकर पलक पर ख़ाक में मिला देते हैं लोग.
बड़े ख़ुलूस से देते हैं दावत-ए-मोहब्बत,
और ज़हर चुपके से नफरत का पिला देते हैं लोग.
दोस्त बनकर पहले तो आँखों में बसाते है अपनी,
फिर नज़रों से यूं ही गिरा देते हैं लोग.
वफ़ा का वास्ता देकर पहले जी भर पिलाते हैं मयखाने में,
फिर इल्जाम ज़माने भर के लगा देते हैं लोग.
लफ्ज मिलते नहीं जो हाल-ए-दिल कह दे सबसे,
इसलिए हर बात का अफ़साना बना देते है लोग.
हमने देखा है जिंदगी को करवटें बदलते,
पाँव मौत के भी हिम्मत से हिला देते है लोग.
अपनेपन का कुछ यूं सिला देते है लोग....
अब मैं नहीं "हम" 

"आज का इंसान और इंसानियत"
जिंदगी मुझको मिली श्मशान में,
पाई हैं खुशियाँ मैंने अपमान में.
दर्द पत्थरों से मिला हैं मुझको,
मगर न मिली इंसानियत इंसान में.
पाठ पढ़कर सभ्यता का जग में,
बढ़ गया पत्थर भी अब भगवान में.
लाश के नज़र में किन्तु आज देखो,
घिर गया इंसान ही शैतान में.
छा रही हरियाली रेगिस्तान में,
जग रहे मुर्दे कब्रिस्तान में,
जानवर भी जानते है प्रेम को,
पर ना आई सभ्यता इंसान में.
पर ना आई सभ्यता इंसान में.
अब मैं नहीं "हम"





~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
18 -दिसम्बर-2009


" मनुष्य परिस्थतियों का दास नहीं, अपितु उसका, निर्माता, नियंत्रनकर्ता और स्वामी है.."                    पं. श्री राम शर्मा आचार्य


Thursday, December 17, 2009

" सच्ची आस्तिकता "

एक लघु कहानी
दुनिया में आज जहाँ देखो वहां राम कथा, श्री मद्भागवत कथा, कांवड़ ले जाने वालों के अलावा और भी होने वाले अनेको धार्मिक आयोजन और इसमें भाग लेने वाले जनसमुदाय की भीड़ ही बढती हुई नज़र आती है.., इससे कभी कभी ऐसा तो प्रतीत होता है कि दुनिया एक सकारात्मक बदलाव की ओर जा रही है.....!!  पर क्या इतना सब कुछ हर रोज़ होने के बाद हम अध्यात्मिक के एहसास तक को भी स्पर्श कर पाएं, उस परमपिता परमात्मा को अपने सानिध्य के रूप में महसूस कर पाए, इसका जवाब आपको कोई और नहीं केवल आपकी अंतरात्मा ही दे सकती है. कभी भी वक़्त मिले तो दिन के 24 घंटों में एक बार हर इंसान को अपनी अंतरात्मा से बात जरूर करनी चाहिए.. और हम इस लघु कहानी के माध्यम से आपसे यही बात करने आये है कि कहीं आप भी इस भीड़ का हिस्सा तो नहीं..!! यहाँ हम आपके और हमारे जीवन में हर रोज़ घटने वाले कुछ ऐसे वृतांतों को दिल के एहसास छू लेने वाली  कहानी को चोला बनाकर आपके सामने लाये है, जिनसे हम हर रोज़ कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में , रूबरू होते है, और साथ ही उसके सही रूप की भी व्याख्या करने की कौशिश की गयी है.... अध्यात्मिक क्रांति को यथार्थ रूप देने वाले आपके सभी सुझाव आमंत्रित है...
(एक बार भगवन शिव, माता पार्वती के साथ अपने सच्चे भक्तों की खोज करने प्रथ्वी भ्रमण पर आये....)

पार्वती : प्रभु...! आज बहुत दिनों बाद प्रथ्वी पर भ्रमण करके काफी आनंदित महसूस हो रहा है...! परन्तु प्रभु, ये अचानक प्रथ्वी भ्रमण का कारण कुछ समझ में नहीं आया.
शिव : देवी..!! हम केवल अपने भक्तों की सुध लेने के पर्याय से ही प्रथ्वी पर भ्रमण करने आते है, और आप तो जानती ही है कि महाशिवरात्रि पर्व नजदीक है, बस सोचा कि क्यों न अपने भक्तो के श्रद्धा और आस्था को प्रत्यक्ष ही महसूस किया जाए.
पार्वती : परन्तु प्रभु..!! इसके लिए आपको प्रथ्वी पर आने की क्या आवश्यकता है, आप तो त्रिकाल दर्शी है...और वैसे भी आपके भक्तो कि संख्या में तो दिन दुनी और रात चौगुनी कि रफ़्तार से वृद्धी हो रही है...!! फिर आपको ऐसी कौन सी व्यथा ने प्रथ्वी पर आने को लालायित कर दिया...!!
शिव : नहीं देवी..!! जैसा दीखता है वैसा नहीं है...!! ये जो बढ़ती हुई भक्तों कि संख्या आप देख रही हैं, इनमे से ज्यादातर वही लोग है जो केवल अपने स्वार्थ साधने के पर्याय से जय शिव शम्भू और जय भोले नाथ का जयकारा लगा रहे है...!!  और अपनी मनोकामनाओ को ये बिना भाव और श्रद्धा के ही पा लेना चाहते है....!!
पार्वती : ये आप क्या कह रहे हैं प्रभु..!!
शिव : हाँ देवी..!! अगर तुम्हें मेरी बात पर यकीन नहीं तो स्वयं ही देख लो..!!

(एक प्यासा पानी कि प्यास में तड़प रहा है, बहुत से कांवड़ वाले आ-जा रहे हैं, तभी एक कांवड़ भक्त उस प्यासे के पास आता तो है पर.....)
प्यासा : पानी....पानी....पानी.....
कांवड़ भक्त :   क्या हुआ भाई...?
प्यासा : पानी....पानी चाहिए मुझे...बड़ी प्यास लगी है....बस एक घूँट पानी.....?
कांवड़ भक्त : लेकी भाई यहाँ तो आस पास कोई नदी या झरना दिखाई नहीं दे रहा.....तुम बताओ मैं तुम्हारे लिए पानी कहाँ से ला सकता हूँ...?
प्यासा : बन्धु...!! तुम अपनी कांवड़ का जल मुझे पिलाकर मेरी प्यास बुझा सकते हो...? तुम्हारा बड़ा एहसान होगा...!!
कांवड़ भक्त : क्या..? नहीं नहीं ये तो असंभव है...तुम क्या चाहते हो कि मैं अपनी कांवड़ तुम्हरे लिए विफल कर दूं...?  इसके लिए तो मैं माफ़ी चाहता हूँ...!!

(इतना कहकर कांवड़ भक्त चलने लगता है और प्यासा पीछे से आवाज़  लगाता रह जाता है..)

प्यासा : बस एक  घूंट पानी.....बस एक घूंट....एक घूंट......(और कांवड़ भक्त चला जाता है...)
शिव : देखा देवी...!! क्या आप मेरे इन्हीं भक्तों कि बढ़ती भीड़ पर प्रसन्न हो रही है..?
पार्वती : पर प्रभु...!! अपनी कांवड़ का जल किसी के लिए आखिर कौन विखंडित करेगा..? ये भी तो आपके प्रति श्रद्धा का दर्पण है...!!
शिव : नहीं देवी...!! जो किसी जरूरतमंद की सहायता और निसहाय की सेवा से अधिक अपने स्वार्थ और आडम्बर को अधिक महत्व देता है...वोह मेरा भक्त हो ही नहीं सकता...भक्ति का वास्तविक मूल ही सेवा और परोपकार है...पूजा पाठ नहीं...!! पूजा पाठ तो केवल अँधेरे में एक दिया के सामान है...!!

(इतने में ही दूसरा कांवड़ भक्त उस प्यासे के पास आकर रुकता है.)
कांवड़ भक्त : क्या हुआ भाई...और तुम इस असहाय हालत में इस जंगल में.....?
प्यासा : मुझे प्यास लगी है...परन्तु जो भी इस रास्ते से आता है, अपनी मजबूरी का बहाना बनाकर, मेरी सहायता करने में अपनी असमर्थता जताता है...?
कांवड़ भक्त : पर मैं भी तुम्हारी मदद कैसे करू ..? यहाँ आस पास पानी तो दिखाई दे ही नहीं रहा...? (सोचने लगता है)
प्यासा : तो क्या तुम भी औरों की तरह...मुझे ऐसे ही प्यासा छोड़ जाओगे...?
कांवड़ भक्त : ऐसा किसने कहा...आस पास पानी नहीं हुआ तो...मेरी कांवड में जो जल है..तुम इसे पीकर अपनी प्यास बुझा लो...!!
प्यासा : नहीं नहीं...तुम ये  कांवड़ का जल इतनी दूर से लाये हो...तुम मेरी वजह से अपनी  कांवड़ को विफल मत करो...!!
कांवड़ भक्त : कैसी बात कर रहे हो बन्धु, अरे उस कांवड़ का क्या फायदा, जो किसी के प्राण ही न बचा सके...
प्यासा : लेकिन...?
कांवड़ भक्त : लेकिन वेकिन कुछ नहीं....? लो तुम पहले जल पी लो..!!

शिव : देखा देवी...!! सिर्फ ऐसे भक्तो के दर्शन की अभिलाषा ही कभी कभी मुझे कैलाश छोड़कर, पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिए आतुर कर देता है...और मेरी अनुकम्पा की वर्षा सदैव ऐसे भक्तों पर बरसती है...!! आओ चले देवी...?
पार्वती : सच कहा प्रभु...!! आपकी लीला आप ही जाने...?

तो देखा आपने उस परमपिता की अभिलाषा और उनकी भक्ति के गुणगान करने वाले भक्तो के रूप...!! जो इश्वर की बनाई हुई व्यवस्था को नहीं समझ पाया, वो भला सच्ची भक्ति का पात्र कैसे हो सकता है...!! और कबीरदास जी ने कहा भी है कि
"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय.
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय."

प्रेम, सेवा, परोपकार, नैतिकता, अहिंसा, सत्य जैसे सात्विक और निश्छल आचरण को अपनाने वाला व्यक्ति ही उस परमपिता का सच्चा सेवक और भक्त कहलाने के लायक है...!! जो केवल पूजा -पाठ, कथा सुनने, यज्ञ में भाग लेने के बावजूद भी अपने आचरण में बदलाव नहीं लाते, वास्तव में उनको भक्ति तो क्या, इंसान कि श्रेणी मं भी अंतिम स्थान ही मिलेगा...!! चलिए अब देखते है भक्ति और सच्ची आस्तिकता का दूसरा रूप....!!

(एक आश्रम में एक व्यक्ति, आश्रम में काम करने वाले किसी व्यक्ति के व्यवहार से परेशान होकर, व्यथित अवस्था क्षुब्ध होकर गुरु जी के पास पहुंचा..)
 शिष्य : गुरु जी...!! आपके यहाँ जड़ी-बूटी कार्यालय के जो व्यवस्थापक महोदय है न...उनको आप अपने आश्रम से निकाल दीजिये...!!
गुरु जी : क्यों क्या हुआ...?
शिष्य : पता है गुरु जी...उसको तो बात करने तक कि तमीज नहीं है....मैं उसके पास गया ..तो उन्होंने मुझसे बड़ी बदतमीज़ी से बात की... मैं तो कहता हूँ गुरु जी अग वोह आपके आश्रम में रहा तो आपका और आश्रम का दोनों का ही नाम ख़राब कर देगा...!
गुरु जी: अच्छा...!! ह्म्म्म तो ठीक है, मैं उसको हटा देता हूँ...लेकिन इसके लिए तुझे एक काम करना होगा...?
शिष्य : हाँ हाँ... बोलिए गुरु जी...!! ये तो मेरा सौभाग्य होगा...!!
गुरु जी : देखो अगर मैं उसको हटाऊंगा तो उसकी जगह किसी और को तो आना पड़ेगा न...तो मैं सोच रहा हूँ की उसकी जगह तू ही आजा....तुझे तो वैसे भी आश्रम की बहुत चिंता है ना...
शिष्य : (झूठी हंसी के साथ) पर गुरु जी मैं.....मैं कैसे आ सकता हूँ....आप तो जानते ही है मुझ पर किती जिम्मेदारियां हैं...
गुरु जी : हाँ ....तेरी जिम्मेदारियां...तो एक काम कर तू नहीं आ सकता तो कोई बात नहीं, तू अपने किसी ऐसे दोस्त को ले आ, जिसकी जिम्मेदारियां कम हो...या ना हो...!! उसके आते ही मैं तुरंत इसको यहाँ से हटा दूंगा...!
शिष्य : (चिंता में पड़कर) पर गुरु जी...मेरे कहने से भला कोई आश्रम में क्यों आएगा...कुछ और कहें जिसे मैं कर सकूं...(हकलाते हुए)  जो मेरे हाथ में हो..
गुरु जी : बेटा पहले तू एक बात बता...तू यहाँ आना नहीं चाहता , किसी और को भी उसकी जगह ला नहीं सकता...और मुझे उस भगवन का काम करना भी है और कराना भी है...!! तो मुझे उसके लिए लोग तो चाहिए ही न...!!
शिष्य : पर गुरु जी ऐसे लोग...?
गुरु जी : बेटा भगवान के काम में सब एक सामान होते है...जिस दिन वो अपना सांसारिक मोह छोड़कर यहाँ आ गया था...तभी वह अपने आप में पूर्ण हो गया था...! चाहे उसकी प्रवृत्ति कोई भी रही हो...परन्तु उसने भगवान के नेक कार्य में सहभागी बनने की ओर कदम तो बढाया...हम उसकी बुरे को नहीं बल्कि उसके त्याग और कर्मों को देखें...और रही बात व्यवहार की,,तो जब उसने अपनेको उस परमपिता के चरणों में समर्पित कर दिया है...तो जो थोड़ी बहूत बुरे बची भी है वोह वक़्त के साथ ...समाप्त हो जायेगी...! जैसे भगवान शिव सर्प -चूहां, शेर-बैल, इत्यादि को एक साथ लेकर चलते हैं, वैसे हमें भी सभी को एक साथ लेकर चलना है. "अपनी अपेक्षित इच्छाओं को त्यागकर भगवान के काम को सर्वोपरी महत्व देने वाला व्यक्ति ही उस प्रभु का सच्चा सेवक है.."
देखा आपने सच्ची आस्तिकता के कुछ यथार्थ स्वरुप...और यही मानव से मनुष्य बनने की राह है..
वैसे भी,
" मनुष्य का जन्म तो सहज होता है, परन्तु मनुष्यता उसे कठिन पर्यत्न से प्राप्त करनी होती है"
~पं. श्री राम शर्मा आचार्य~

अब मैं नहीं "हम"





"विचार: जो युग परिवर्तन कर दें" : एक नया और नियमित कॉलम

आज दिनांक 17 दिसम्बर 2009 से "विचार: जो युग परिवर्तन कर दें " एक कॉलम शुरू किया जा रहा है, इन्हें जितना संभव हो सके, अपने जीवन में ग्रहण करने की कौशिश करेंगे तो निश्चित ही प्रथ्वी पर स्वर्ग के अवतरण की परिकल्पना को यथार्थ में बदला जा सकेगा....
आशा है की इस ब्लॉग में रुचि रखने वालो के लिए व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में यह एक प्रभावशाली कदम साबित होगा,  इसी आशा के साथ आपका  सूर्य प्रकाश शर्मा 

~ विचार: जो युग परिवर्तन कर दें ~
17-दिसम्बर-2009


"शालीनता बिना मोल मिलती है, परन्तु उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है "        पं. श्री राम शर्मा आचार्य
                                                                                                         

 

Wednesday, December 16, 2009

हमारा देव संस्कृति विश्वविधालय, हरिद्वार: एक नज़र

सबके लिए खुला है, ये विश्वविधालय हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
देव संस्कृति का आधार लेकर, हुई है सरंचना इसकी.
शिक्षा और विद्या के समन्वय का, यहाँ अकल्पनीय होगा नज़ारा.
मतभेद को भुलाता, ये विश्वविधालय हमारा.
चाहे आयें सभी ही पंथी, चाहे आये सभी ही धर्मी.
सभी आने वाले देशी और विदेशियों का, मस्जिद भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
मानव का धर्म क्या है, मिलती है राह इसमें.
सिखाता है सेवा करना, गिरिजाघर भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
गुरुवार कि अमरवाणी और, तपशक्ति का अंश यहाँ पर.
सब जन है बहन-भाई. रहते है मिलजुलकर.
सभी देव शक्तियों का, मिलता है पल पल सहारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
सभी ऋषि सत्ताओं का निरंतर, होता है भ्रमण यहाँ पर.
मिलती है प्रतिपल शांति, ये गुरुद्वारा भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
मतभेद होने पर भी, मन में भेद नहीं होता.
अखंड एकता का है गवाह, ये प्रेम का मंदिर हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
करते है सभी साथ मिलकर, रोज़ प्रार्थना यहाँ पर.
सोते है प्रार्थना की धुन पर, जागते है प्रार्थना पर.
ये नहीं केवल अध्ययन केंद्र, अपितु गर्व भी है ये हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
ग्रामोत्थान का आधार लेकर, गावों के विकास का सपना है.
इंटर्नशिप यहाँ एक बंदिश नहीं, हर विद्यार्थी का फैसला अपना है.
गुरुवर का सपना ही, अब सपना है हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
गुरुवर की वाणी जाने हर जा, मिलकर करेंगे पर्यत्न ऐसा.
बनेंगे युग परिवर्तन की कड़ी, अब ये संकल्प है हमारा.
मतभेद को भुलाता ये विश्वविधालय हमारा.
सबके लिए खुला है, ये विश्वविधालय हमारा.
अब मैं नहीं "हम" 

सबसे बड़ा लोकतंत्र या फांसीवादी लोकतंत्र...?

"अक्सर मैं बहुत खुश होता हूँ कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, लेकिन कभी कभी सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि क्या वास्तव में हम उस लोकतंत्र में रहते है, जिसके सविंधान में समानतावादी समाज की विस्तृत व्याख्या की गयी है....?"
कभी कभी मैं सोचता हूँ कि,
मैं किस देश में रहता हू.
सच बताऊँ तो मैं इसे,
वास्तविक लोकतंत्र कहता हूँ.
सबकी अपनी मर्जी और,
सबका अपना काम है.
किसी को अल्लाह की पनाह ,
किसी का आसरा राम है.
लोकतंत्र पद्धति की,
इस देश में सरकार हैं.
जो नेताओं के तंत्र मंत्र का शिकार है.
"हमारे देश भारत में कभी धर्म के अनुसार राजनीति का संचालन होता था..लेकिन अब राजनीति के आधार पर धर्म का संचालन होता है, जो क्या हमारी धर्मनिरपेक्ष संविधान प्रणाली पर सवाल खड़ा नहीं करता...?"
यहाँ नेता धर्म को बना खिलौना,
राजनीति से खेलते है.
कहीं राम का मंदिर और,
कहीं मस्जिद गेरते है.
आज नेता ही वोटो के लिए,
सम्प्रदायिकता  फैलाने को तैयार हैं.
धन ही उनका धर्म-कर्म और.
धन ही उनके जीवन का आधार है.
 "अब हम बड़े गर्व से कहते हैं की हम हिन्दुस्तान में रहते है, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है...लेकिन...?"
हिन्दुस्तान में ही,
हिंदी भाषियों का रहना दुशवार है,
राज ठाकरे जी को केवल,
महाराष्ट्र से प्यार है.
कहीं असम में हिन्दू हत्या,
कहीं हिन्दू संतों पर अत्याचार है.
क्या यही हिंदुस्तान का,
हिन्दुस्तानियों से प्यार है.
"गांधी-नेहरु जैसे भारत के मजबूत स्तंभों ने भयमुक्त समाज की संकल्पना की थी....पर यहाँ भी निराशा है..? "
आज बढ़ते जुर्मों के आगे.
कानून व्यवस्था नाकाम है.
छूटती जा रही,
मजबूत राजनीति की लगाम है.
नहीं है किसी डर, संविधान और कानून का.
पर क्या करें दोस्तों,
यही तो आज कल इस सबसे बड़े लोकतंत्र की शान है.
"रूढ़िवादिता की बात करें, तो वो हमेशा से इस देश के मूल में रही है लेकिन संविधान में समानतावादी समाज की स्थापना के संकल्प को दरकिनार कर हमारे देश के नेताओं ने जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसी विकराल सामाजिक समस्याओं को पोषण दिया है"
गांधी नेहरु के इस देश में,
विषमता इस तरह हावी है.
जाती, धर्म और क्षेत्र के मुद्दों पर,
चलती व्यवस्था हमारी है.
आराक्सम के मुद्दों को उठाकर,
ये नेता वोट पाते है.
अपने स्वार्थ की खातिर,
समाज को बाँट जाते है.
धन वाले और धनि हो रहे,
गरीबों पर पड़ रही महंगाई, मंदी की मार है.
पर क्या करें बंधुओं..
यही हमारी सरकार है.
"अब यहाँ देखे की जिसने इन् नेताओ को चुनकर भेजा है, अब जब वही अपनी समस्या लेकर उनके पास जाते है, तब..."
रिश्वत लेकर ही वे,
जनता का काम करते है.
भूल जाते है वो कि,
इनके वोटों से ही मंत्री बनते है.
जो संसद में ही,
लात घूंसे चलते है.
कभी धर्म और कभी आरक्षण के मुद्दों पर,
जनता को आपस में लड़ाते हैं,
जनता के लिए ऐसे नेता,
क्या कर पायेंगे.
2-4-5 सालों में,
अपनी जेबें भरकर ले जायेंगे.
अपनी जाति के लोगो को ही ये नेता,
कुछ प्राथमिकता देते है,
बाकी लोग तो हमेशा,
इनके ऑफिसों के चक्कर काटते रहते है.
"अब जब ये जनता के प्रतिनिधि जनता का काम ही नहीं करते, तो आखिर करते क्या है....?"
अपनी कुर्सी इन्हें जनता से प्यारी है,
जिसके लिए अब संसद में भी,
मचती मारामारी है.
भाषण देकर कहते है कि,
हम जनता के, जनता हमारी है.
जनता को भड़काते रहते,
इनका कोई ईमान नहीं.
धनवालों के पीछे रहते ,
आम जनता का कोई ध्यान नहीं.
"आखिर कब तक इनकी एक्टिंग जनता के सामने चलती, अब जब नेताओ कि पोल खुलने से जनता का विश्वास इन् नेताओ पर से उठने लगा तो इन् राजनितिक पार्टियों अब एक नया दांव खेलना शुरू किया है...?"
अब जब ये नेता भीड़ जुटा नहीं पाते है,
तो अपनी पार्टी में,
फ़िल्मी सितारों को ले आते है.
भोली भाली जनता को कभी अमिताभ,
तो कभी संजय दत्त से बेवकूफ बनाते है.
झूठा अभिनय करने से भी,
इन् नेताओं कि जान छूट जाती है.
देश की आम जनता बेचारी,
फिर बेवकूफ बन जाती है.
सामाजिक समस्या के मुद्दें,
जस के तस रह जाते है.
ये नेता बेचारी जनता को हरदम,
जातिवाद और क्षेत्रवाद में उलझा कर चले जाते है.
"तो क्या हम हमेशा लोकतंत्र के नाम पर ऐसे ही जीते रहेंगे, क्या गांधी नेहरू का ये देश ऐसे ही चलेगा...? नहीं अगर केवल एक कदम हम बढाएं तभी कुछ बदल सकता है..,  तभी इस लोकतंत्र  की विषमताओं से छूटकारा मिल सकता है,  अब हमें ही बढ़ाना होगा  कदम हमारे सुनहरे भविष्य के लिए..."
कब तक हम सोते रहेंगे,
इन् जातिवादी नेताओं को वोट देते रहेंगे.
अब जातिवाद और क्षेत्रवाद को पीछे छोड़,
विषमताओं पर प्रहार करेंगे.
इन् सितारों की चमक से निकलकर,
अँधेरी दुनिया को रोशन करेंगे.
आओं दोस्तों, आज से हम और आप....
परिवर्तन की नयी बयार,
अब लाने को तैयार हो.
सामाजिक विषमताओं के उन्मूलन को,
अब हर जन तैयार हो..
अब हर जन तैयार हो..
अब हर जन तैयार हो..
वन्दे मातरम
अब मैं नहीं "हम"

Friday, December 11, 2009

मोबाइल महाकाव्य

एक बार कहीं चलते चलते,
एक बात मुझे पता चली।
आज भी है कुछ जगह ऐसी,
मोबाइल को लेकर जहाँ मची रहती है खलबली।
तभी सोचा, क्यों न इसकी महिमा पर एक काव्य बनाऊं,
और इस यंत्र पर जुल्म करने वालो के कान में,
इसकी महिमा पहुँचाऊँ।

सुने, समझे और इसकी महिमा को दुनिया तक पहुंचाएं....--
....

मोबाइल की महानगाथा,
आज कहकर हम बतलाते।
इस यन्त्र के बिना आज के युवा नही जी पाते।।
क्यों बढ़ गई इस यन्त्र की आज,
जग में इतनी महिमा।
इसी यन्त्र ने बढ़ा राखी है,
आज सबकी समाजिक गरिमा।
एक बात तो सच है कि-
इसने दूरी के अन्तर को पाटा,
भले ही वर्तमानं में इसने,
पहुँचाया थोड़ा संस्कृति को घाटा।
अगर हम भारतवासी इस तकनीकी को पहले जान पाते,
तो-
रामायण, महाभारत जैसे युद्ध,
मिनटों में ही सुलझ जाते।
इतने बड़े बड़े इस भूमि पर कभी न होते युद्ध,
बातों से ही शांत हो जाते सारे क्रुद्ध।
आइये,
आपको लिए चलते है ऐसे ही एक युग में,
राम जी के साथ रावण था जिस युग में।
सीता अपहरण का मामला जल्दी ही सुलझ जाता,
यदि राम जी के हाथ ये यन्त्र लग जाता।
ना होती जरूरत सुग्रीव कि,
और ना होती जरूरत हनुमान की,
इस यन्त्र से ही पता हो जाती माँ जानकी।
एक कॉल करके रावण से मांडवाली हो जाती,
सोने की लंका बेचारी जल न पाती।
अब आप ही सोचिये जनाब कि,
कितना जरूरी है ये आधुनिक यन्त्र मोबाइल,
जो बन बैठा है वर्तमान में जीने का स्टाइल।
अब थोड़ा आगे चलते ही आता त्रापर युग,
जिसे याद करते रहेंगे आने वाले युग।
उस युग ने कृष्ण, कंस और कौरवों कि गाथा गई थी,
ल्व्किन अगर होता मोबाइल उस वक्त,
तो पांडवों कि शामत आई थी।
बेचारे पांडव कौरवों से कभी नही जीत पाते,
क्यों कि बेचारे रणभूमि में ही नही पहुँच पाते।
टूट जाता बार बार उनका अज्ञात वास,
जो रहता मोबाइल उस वक्त दुर्योधन के पास।
नेटवर्क भी हिता इतना हाई कि,
अज्ञात वास करते करते पांडवों को याद आ जाती माई।
कृष्ण जी कि भी बातें हो जाती टेप,
और युद्ध कि निति खुल जाती,
बेचारी द्रोपदी जिन्दगी भर चोटी न बना पाती।
बात पहुंचती चलते चलते आज के पावन युग में,
इसी यन्त्र का ही बोलबाला है इस कलयुग में।
रामराज्य की भूमिका को इसने जामा पहनाया है,
इस यंत्र ने इन गतिविधियों को और बढाया है।
सभी कामो को मिनटों में देता ये अंजाम,
यवो के मुख पर रहता हरदम इसका नाम।
रात रात भर बातें करते,
सारे दिन ये सोते।
इसकी महिमा से ही ,
कॉलेज में period नही होते।
प्रोफेसरों को भी मिल जात है आराम का बहाना,
इसलिए सभी ने इस यंत्र की महिमा को पहचाना।
लेकिन आज भी कई कॉलेज ऐसे है,
जहाँ ये यंत्र युवाओ से कोसो दूर है,
बेचारा अपनी तन्हाई में जीने को मजबूर है।
क्यों की युवाओ के सहयोग से ही बढती इसकी शान,
कॉलेज प्रशाशन के खड़े हो जाते है एक दम कान।
जिसके लिए आते है फिर समाया समय पर संशोदित सविंधान,
जो कर देता है बेचारे विद्यार्थियों की नींद हराम।
अब आप ही बाताएं-
छोड़ दे बेचारे ये युवा कुछ भी किसी के कहने से ,
कैसे छोड़े अपनी जान को,
सोचते रहते हर पल कि,
कैसे पहुंचाए कॉलेज प्रशासन तक,
इस यंत्र उपयोगी ज्ञान को।
नही होती हिम्मत किसी की,
क्यों की रहता अनुशासन समिति का डंडा,
लेकिन मुझे आज तक समझ में नही आया ये फंडा।
आख़िर इस २१वी सदी में क्यों कहीं भी इस यंत्र पर इतना जुल्म है,
क्या पर्तिबंध लगाने वाले लोंगो को कुछ इल्म है।
कौन किसी से रह रहा कितनी दूर है,
जो अपने पालो को अपनों से शेयर करने को भी मजबूर है।
काश...! अगर हर पल हो नये मोबाइल इन् विधार्थियों के पास,
बना लेते अपने हर दुःख सुख के पलों को अपनों के साथ खास।
जब चाहते अपनों से बातें कर पाते,
कभी एयरटेल और कभी वोडाफ़ोन संग बातों में रंग भर पाते।
लेकिन फिर वही प्रशासन इन् बातों पर सफाई देता है,
इसमे हमारे प्यारे विधार्थियों की ही है भलाई,
पता नही क्यों उन्हें हमारी बात समझ में नही आई,
इस यंत्र को उनसे दूर करने में नही हमारा दोष,
पता नही विधार्थियों को क्यों आता है हम पर ही रोष,
उनकी गलतियाँ ही उन् पर प्रतिबन्ध बन कर आई है,
गेहूं के साथ तो होती आई घुन की पिसाई है।
खैर इनका पक्ष विपक्ष तो लंबा बढ़ता जाएगा,
इनकी बातों ही मेरा कलम थक जाएगा।
अब आख़िर में लिए चलते है आपको एक ऐसे गाँव में,
जहाँ मोबाइल आज भी है एक सपना।
लेकिन खुमारी है इस यंत्र की इतनी कि एक बात याद है आई,
आपको भी बता दूँ ये किस्सा, ये बात समझ में आई।
कि आज भी-
एक राज्य के, एक जिले के, एक तहसील के , एक शहर के,
एक कसबे के, एक गाँव के, एक मोहल्ले के, एक घर में----
एक लड़की थी अनजानी सी,
मोबाइल लेकर चलती थी।
नज़रें झुका के, शरमा के,
मोबाइल में ना जाने क्या देखा करती थी।
पर जब भी मीलती थी मुझसे,
यही पूछा करती थी कि
सूर्य प्रकाश जी
ये on कैसे होता है, ये on कैसे होता है,
और मैं, मैं बस यही कहता था कि ------ बेटा----
ये मोबाइल नही टी.वी का रिमोट है.....!!

धन्यवाद्
अब मैं नहीं "हम"