Thursday, October 28, 2010

कब तक की ये ख़ामोशी है...


कभी जुबां खामोश है तो कभी लब नहीं खुलते मेरे.!!
कभी रिश्ते खामोश है तो कभी अपने नहीं होते मेरे..!!
कभी कल्पना खामोश है तो कभी लफ्ज़ नहीं होते मेरे..!!
कभी मन खामोश है तो कभी ज़ज्बात नहीं होते मेरे..!!
कभी हम खुद से खामोश है तो कभी सपने भी नहीं होते मेरे..!!
भला....
अब पूछे भी किससे कि क्यों है ये ख़ामोशी सी...
और क्यों ख़ामोशी के बेहद करीब ये एहसास है मेरे....


इतनी भीड़ में तन्हाई क्यों है......


इतनी भीड़ में तन्हाई क्यों है,
हर दिल-ए-अजीज में गहराई क्यों है,
क्यों होता है हर महफ़िल में रुखसत का एहसास,
हर पल गुनगुनाती सी ये खामोश सहनाई क्यों है,
आखिर इतनी भीड़ में भी तन्हाई क्यों है.