Monday, July 19, 2010

वफाओं का सिला...!!

वो शख्श जब से गया फिर कभी मिला नहीं,
ऐसा बुझा चिराग मेरा आज तक जला नहीं.
ज़माना इस दस्तूर को कहता है बेवफाई,
मगर मुझे उस शख्श से कोई गिला नहीं.
खुल गया दरवाज़ा मेरी ये कैसी हवा चली, 
पेड़ों का तो एक भी पत्ता हिला नहीं.
जाने कैसा हो गया फिजाओं का दस्तूर आज,
एक कली भी मुस्काई नहीं एक फूल भी खिला नहीं.
सारे जाने से वफ़ा की ए तुने "सूर्य प्रकाश"
क्या ये सब तेरी वफाओं का सिला तो नहीं.
"अब मैं नहीं हम"