Thursday, December 17, 2009

" सच्ची आस्तिकता "

एक लघु कहानी
दुनिया में आज जहाँ देखो वहां राम कथा, श्री मद्भागवत कथा, कांवड़ ले जाने वालों के अलावा और भी होने वाले अनेको धार्मिक आयोजन और इसमें भाग लेने वाले जनसमुदाय की भीड़ ही बढती हुई नज़र आती है.., इससे कभी कभी ऐसा तो प्रतीत होता है कि दुनिया एक सकारात्मक बदलाव की ओर जा रही है.....!!  पर क्या इतना सब कुछ हर रोज़ होने के बाद हम अध्यात्मिक के एहसास तक को भी स्पर्श कर पाएं, उस परमपिता परमात्मा को अपने सानिध्य के रूप में महसूस कर पाए, इसका जवाब आपको कोई और नहीं केवल आपकी अंतरात्मा ही दे सकती है. कभी भी वक़्त मिले तो दिन के 24 घंटों में एक बार हर इंसान को अपनी अंतरात्मा से बात जरूर करनी चाहिए.. और हम इस लघु कहानी के माध्यम से आपसे यही बात करने आये है कि कहीं आप भी इस भीड़ का हिस्सा तो नहीं..!! यहाँ हम आपके और हमारे जीवन में हर रोज़ घटने वाले कुछ ऐसे वृतांतों को दिल के एहसास छू लेने वाली  कहानी को चोला बनाकर आपके सामने लाये है, जिनसे हम हर रोज़ कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में , रूबरू होते है, और साथ ही उसके सही रूप की भी व्याख्या करने की कौशिश की गयी है.... अध्यात्मिक क्रांति को यथार्थ रूप देने वाले आपके सभी सुझाव आमंत्रित है...
(एक बार भगवन शिव, माता पार्वती के साथ अपने सच्चे भक्तों की खोज करने प्रथ्वी भ्रमण पर आये....)

पार्वती : प्रभु...! आज बहुत दिनों बाद प्रथ्वी पर भ्रमण करके काफी आनंदित महसूस हो रहा है...! परन्तु प्रभु, ये अचानक प्रथ्वी भ्रमण का कारण कुछ समझ में नहीं आया.
शिव : देवी..!! हम केवल अपने भक्तों की सुध लेने के पर्याय से ही प्रथ्वी पर भ्रमण करने आते है, और आप तो जानती ही है कि महाशिवरात्रि पर्व नजदीक है, बस सोचा कि क्यों न अपने भक्तो के श्रद्धा और आस्था को प्रत्यक्ष ही महसूस किया जाए.
पार्वती : परन्तु प्रभु..!! इसके लिए आपको प्रथ्वी पर आने की क्या आवश्यकता है, आप तो त्रिकाल दर्शी है...और वैसे भी आपके भक्तो कि संख्या में तो दिन दुनी और रात चौगुनी कि रफ़्तार से वृद्धी हो रही है...!! फिर आपको ऐसी कौन सी व्यथा ने प्रथ्वी पर आने को लालायित कर दिया...!!
शिव : नहीं देवी..!! जैसा दीखता है वैसा नहीं है...!! ये जो बढ़ती हुई भक्तों कि संख्या आप देख रही हैं, इनमे से ज्यादातर वही लोग है जो केवल अपने स्वार्थ साधने के पर्याय से जय शिव शम्भू और जय भोले नाथ का जयकारा लगा रहे है...!!  और अपनी मनोकामनाओ को ये बिना भाव और श्रद्धा के ही पा लेना चाहते है....!!
पार्वती : ये आप क्या कह रहे हैं प्रभु..!!
शिव : हाँ देवी..!! अगर तुम्हें मेरी बात पर यकीन नहीं तो स्वयं ही देख लो..!!

(एक प्यासा पानी कि प्यास में तड़प रहा है, बहुत से कांवड़ वाले आ-जा रहे हैं, तभी एक कांवड़ भक्त उस प्यासे के पास आता तो है पर.....)
प्यासा : पानी....पानी....पानी.....
कांवड़ भक्त :   क्या हुआ भाई...?
प्यासा : पानी....पानी चाहिए मुझे...बड़ी प्यास लगी है....बस एक घूँट पानी.....?
कांवड़ भक्त : लेकी भाई यहाँ तो आस पास कोई नदी या झरना दिखाई नहीं दे रहा.....तुम बताओ मैं तुम्हारे लिए पानी कहाँ से ला सकता हूँ...?
प्यासा : बन्धु...!! तुम अपनी कांवड़ का जल मुझे पिलाकर मेरी प्यास बुझा सकते हो...? तुम्हारा बड़ा एहसान होगा...!!
कांवड़ भक्त : क्या..? नहीं नहीं ये तो असंभव है...तुम क्या चाहते हो कि मैं अपनी कांवड़ तुम्हरे लिए विफल कर दूं...?  इसके लिए तो मैं माफ़ी चाहता हूँ...!!

(इतना कहकर कांवड़ भक्त चलने लगता है और प्यासा पीछे से आवाज़  लगाता रह जाता है..)

प्यासा : बस एक  घूंट पानी.....बस एक घूंट....एक घूंट......(और कांवड़ भक्त चला जाता है...)
शिव : देखा देवी...!! क्या आप मेरे इन्हीं भक्तों कि बढ़ती भीड़ पर प्रसन्न हो रही है..?
पार्वती : पर प्रभु...!! अपनी कांवड़ का जल किसी के लिए आखिर कौन विखंडित करेगा..? ये भी तो आपके प्रति श्रद्धा का दर्पण है...!!
शिव : नहीं देवी...!! जो किसी जरूरतमंद की सहायता और निसहाय की सेवा से अधिक अपने स्वार्थ और आडम्बर को अधिक महत्व देता है...वोह मेरा भक्त हो ही नहीं सकता...भक्ति का वास्तविक मूल ही सेवा और परोपकार है...पूजा पाठ नहीं...!! पूजा पाठ तो केवल अँधेरे में एक दिया के सामान है...!!

(इतने में ही दूसरा कांवड़ भक्त उस प्यासे के पास आकर रुकता है.)
कांवड़ भक्त : क्या हुआ भाई...और तुम इस असहाय हालत में इस जंगल में.....?
प्यासा : मुझे प्यास लगी है...परन्तु जो भी इस रास्ते से आता है, अपनी मजबूरी का बहाना बनाकर, मेरी सहायता करने में अपनी असमर्थता जताता है...?
कांवड़ भक्त : पर मैं भी तुम्हारी मदद कैसे करू ..? यहाँ आस पास पानी तो दिखाई दे ही नहीं रहा...? (सोचने लगता है)
प्यासा : तो क्या तुम भी औरों की तरह...मुझे ऐसे ही प्यासा छोड़ जाओगे...?
कांवड़ भक्त : ऐसा किसने कहा...आस पास पानी नहीं हुआ तो...मेरी कांवड में जो जल है..तुम इसे पीकर अपनी प्यास बुझा लो...!!
प्यासा : नहीं नहीं...तुम ये  कांवड़ का जल इतनी दूर से लाये हो...तुम मेरी वजह से अपनी  कांवड़ को विफल मत करो...!!
कांवड़ भक्त : कैसी बात कर रहे हो बन्धु, अरे उस कांवड़ का क्या फायदा, जो किसी के प्राण ही न बचा सके...
प्यासा : लेकिन...?
कांवड़ भक्त : लेकिन वेकिन कुछ नहीं....? लो तुम पहले जल पी लो..!!

शिव : देखा देवी...!! सिर्फ ऐसे भक्तो के दर्शन की अभिलाषा ही कभी कभी मुझे कैलाश छोड़कर, पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिए आतुर कर देता है...और मेरी अनुकम्पा की वर्षा सदैव ऐसे भक्तों पर बरसती है...!! आओ चले देवी...?
पार्वती : सच कहा प्रभु...!! आपकी लीला आप ही जाने...?

तो देखा आपने उस परमपिता की अभिलाषा और उनकी भक्ति के गुणगान करने वाले भक्तो के रूप...!! जो इश्वर की बनाई हुई व्यवस्था को नहीं समझ पाया, वो भला सच्ची भक्ति का पात्र कैसे हो सकता है...!! और कबीरदास जी ने कहा भी है कि
"पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय.
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय."

प्रेम, सेवा, परोपकार, नैतिकता, अहिंसा, सत्य जैसे सात्विक और निश्छल आचरण को अपनाने वाला व्यक्ति ही उस परमपिता का सच्चा सेवक और भक्त कहलाने के लायक है...!! जो केवल पूजा -पाठ, कथा सुनने, यज्ञ में भाग लेने के बावजूद भी अपने आचरण में बदलाव नहीं लाते, वास्तव में उनको भक्ति तो क्या, इंसान कि श्रेणी मं भी अंतिम स्थान ही मिलेगा...!! चलिए अब देखते है भक्ति और सच्ची आस्तिकता का दूसरा रूप....!!

(एक आश्रम में एक व्यक्ति, आश्रम में काम करने वाले किसी व्यक्ति के व्यवहार से परेशान होकर, व्यथित अवस्था क्षुब्ध होकर गुरु जी के पास पहुंचा..)
 शिष्य : गुरु जी...!! आपके यहाँ जड़ी-बूटी कार्यालय के जो व्यवस्थापक महोदय है न...उनको आप अपने आश्रम से निकाल दीजिये...!!
गुरु जी : क्यों क्या हुआ...?
शिष्य : पता है गुरु जी...उसको तो बात करने तक कि तमीज नहीं है....मैं उसके पास गया ..तो उन्होंने मुझसे बड़ी बदतमीज़ी से बात की... मैं तो कहता हूँ गुरु जी अग वोह आपके आश्रम में रहा तो आपका और आश्रम का दोनों का ही नाम ख़राब कर देगा...!
गुरु जी: अच्छा...!! ह्म्म्म तो ठीक है, मैं उसको हटा देता हूँ...लेकिन इसके लिए तुझे एक काम करना होगा...?
शिष्य : हाँ हाँ... बोलिए गुरु जी...!! ये तो मेरा सौभाग्य होगा...!!
गुरु जी : देखो अगर मैं उसको हटाऊंगा तो उसकी जगह किसी और को तो आना पड़ेगा न...तो मैं सोच रहा हूँ की उसकी जगह तू ही आजा....तुझे तो वैसे भी आश्रम की बहुत चिंता है ना...
शिष्य : (झूठी हंसी के साथ) पर गुरु जी मैं.....मैं कैसे आ सकता हूँ....आप तो जानते ही है मुझ पर किती जिम्मेदारियां हैं...
गुरु जी : हाँ ....तेरी जिम्मेदारियां...तो एक काम कर तू नहीं आ सकता तो कोई बात नहीं, तू अपने किसी ऐसे दोस्त को ले आ, जिसकी जिम्मेदारियां कम हो...या ना हो...!! उसके आते ही मैं तुरंत इसको यहाँ से हटा दूंगा...!
शिष्य : (चिंता में पड़कर) पर गुरु जी...मेरे कहने से भला कोई आश्रम में क्यों आएगा...कुछ और कहें जिसे मैं कर सकूं...(हकलाते हुए)  जो मेरे हाथ में हो..
गुरु जी : बेटा पहले तू एक बात बता...तू यहाँ आना नहीं चाहता , किसी और को भी उसकी जगह ला नहीं सकता...और मुझे उस भगवन का काम करना भी है और कराना भी है...!! तो मुझे उसके लिए लोग तो चाहिए ही न...!!
शिष्य : पर गुरु जी ऐसे लोग...?
गुरु जी : बेटा भगवान के काम में सब एक सामान होते है...जिस दिन वो अपना सांसारिक मोह छोड़कर यहाँ आ गया था...तभी वह अपने आप में पूर्ण हो गया था...! चाहे उसकी प्रवृत्ति कोई भी रही हो...परन्तु उसने भगवान के नेक कार्य में सहभागी बनने की ओर कदम तो बढाया...हम उसकी बुरे को नहीं बल्कि उसके त्याग और कर्मों को देखें...और रही बात व्यवहार की,,तो जब उसने अपनेको उस परमपिता के चरणों में समर्पित कर दिया है...तो जो थोड़ी बहूत बुरे बची भी है वोह वक़्त के साथ ...समाप्त हो जायेगी...! जैसे भगवान शिव सर्प -चूहां, शेर-बैल, इत्यादि को एक साथ लेकर चलते हैं, वैसे हमें भी सभी को एक साथ लेकर चलना है. "अपनी अपेक्षित इच्छाओं को त्यागकर भगवान के काम को सर्वोपरी महत्व देने वाला व्यक्ति ही उस प्रभु का सच्चा सेवक है.."
देखा आपने सच्ची आस्तिकता के कुछ यथार्थ स्वरुप...और यही मानव से मनुष्य बनने की राह है..
वैसे भी,
" मनुष्य का जन्म तो सहज होता है, परन्तु मनुष्यता उसे कठिन पर्यत्न से प्राप्त करनी होती है"
~पं. श्री राम शर्मा आचार्य~

अब मैं नहीं "हम"





"विचार: जो युग परिवर्तन कर दें" : एक नया और नियमित कॉलम

आज दिनांक 17 दिसम्बर 2009 से "विचार: जो युग परिवर्तन कर दें " एक कॉलम शुरू किया जा रहा है, इन्हें जितना संभव हो सके, अपने जीवन में ग्रहण करने की कौशिश करेंगे तो निश्चित ही प्रथ्वी पर स्वर्ग के अवतरण की परिकल्पना को यथार्थ में बदला जा सकेगा....
आशा है की इस ब्लॉग में रुचि रखने वालो के लिए व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में यह एक प्रभावशाली कदम साबित होगा,  इसी आशा के साथ आपका  सूर्य प्रकाश शर्मा 

~ विचार: जो युग परिवर्तन कर दें ~
17-दिसम्बर-2009


"शालीनता बिना मोल मिलती है, परन्तु उससे सब कुछ ख़रीदा जा सकता है "        पं. श्री राम शर्मा आचार्य