Friday, March 19, 2010

अपेक्षा और उपेक्षा नहीं, बल्कि योग्यता पर यकीन रखें...!!

          मैं एक युवा हूँ, और अपने समकक्ष हर उस युवा के अंतर्मन की पीड़ा को समझ सकता हूँ जिसने जिन्दगी की इस सबसे हसीं, जोश से भरपूर और स्वर्णिम अवस्था में कदम रखा है. मेरी ये बात उन् सभी युवाओं के लिए है जो इस देहलीज पर कदम रखते ही अपनों की महत्वाकांक्षाओ और अपेक्षाओं के बोझ के तले इस अवस्था में कदम रखते ही अपने को सबसे ज्यादा असहज और तनाव में पाता है. पर जरूरत है अपने को इन सबके विपरित सबसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की. और इस कामयाबी में उनके सच्चे दोस्त है, आत्मविश्वास,  चिंतन शीलता और चरित्र. क्यों की इन्ही तीनों के सम्मलित रूप से आपका व्यवहार बनता है और उसी से ही तैयार होती है सफल व्यक्तित्व की राह.
          आज ही नहीं अपितु प्रारम्भ से ही युवाओं को हमेशा से आलोचना का शिकार होते रहना पड़ा है उनके द्वारा किये गए हर अच्छे कार्य के लिए प्रोत्साहन तो केवल औपचारिकता भर ही होता है, और आलोचना ऐसी कि एक बार तो लगे की भगवान ने इस जीब में हड्डी न लगाकर मानव जाति को सबसे बड़ा अभिशाप दिया है.आज किसी युवा के भटकने, तनाव ग्रसित होने या उसके किसी भी गलत कार्य में विलुप्त होने पर हम उसके खुद के आचरण से लेकर उसके परिवार तक के आचरण पर कलंक थोपने में पल भर का भी समय नहीं लगाते. अगर इसका कुछ सार्थक प्रतिशत भी इसके कारणों को जाने और उसमे अपेक्षाअनुरूप सकारात्मक बदलाव लाने के एक कदम भी आगे बढाया जाता, तो आज जिस भारत का पुरे विश्व में सबसे युवा देश होने  का डंका बजता है, वो केवल कागजो में युवाओं कि जनसँख्या के आधार पर नहीं अपितु युवाओं कि अटूट संकल्शक्ति और गहरी चिंतनशीलता, और पावन चरित्र के आधार पर युवा देश होता. और ये नहीं हो पाया..इसका केवल और केवल एक ही कारण है, वो ये कि युवा को हमेशा से ही अपनी परिवार, समाज, दोस्त, रिश्तेदार, और अध्यापकों..यानी हर कहीं- हर मोड़ पर उपेक्षाओं का सामना करना पड़ा है, और इन्ही उपेक्षाओं के ही परिणाम स्वरुप ही आज युवा न चाहकर भी ऐसे काले घने अँधेरे कोने के अस्तित्व में समाया जा रहा है, जिसका समाधान केवल और केवल उनके महत्व को समझने से ही मिल सकता है. उनको हर पल ये एहसास देना जरूरी है कि ...
"अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि टीम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो."
~पं श्री राम शर्मा आचार्य~
         परन्तु इसके बजाय यौवन की देहलीज पर कदम पर कदम रखते ही युवा अपेक्षओं का बोझ और उपेक्षाओं के तीखे प्रहार के बीच अपने को असहज महसूस करना शुरू कर देता है. क्यों की यही वो दौर है जहाँ से उसकी सोच, उसकी महत्वाकांक्षाओ, उसके सपनों को पहला कदम मिलता है. और उसी के साथ हो जाता है अपेक्षाओ और उपेक्षाओं का दौर....!! परिवार की दृष्टि से अगर बात करें तो यहाँ शिव खेड़ा जी द्वारा उनकी पुस्तक "जीत आपकी" में उद्वेलित एक वाक्य सटीक बैठता है, उन्होंने लिखा है...
"अक्सर माँ बाप अपनी महत्वाकांक्षाओ के चलते उसे सबसे अधिक नुक्सान पहुंचा बैठते है, जिसे वो सबसे अधिक प्यार करते है."
          और ये बात तभी सिद्ध हो जाती है, जब माँ बाप बच्चो के सपनों पर ध्यान न देकर अपने सपनो को उन पर थोपने का प्रयास करते है. उनका मन चाहे या न चाहे पर ज्यादातर माँ बाप अपने बच्चो को डॉक्टर, इंजिनियर, आई. ए.एस से कम तो बनाना ही नहीं चाहता. उस वक़्त उनकी हर रचनात्मक बात को वो महत्व तक भी दिया नहीं जाता, जिसके लिए वो पुरस्कार के सह्बागी भी बन सकते है.  और अफ़सोस की बात तो ये है की खुद माप बाप इस आयु से निकल चुके है, फिर भी उनके सपनों को समझने में कई बार तो इतनी देर लगा देते है, जब उसका कोई भी औचित्य नहीं रह जाता.
          अगर हम दोस्तों की दृष्टि से देखें,  तो ये तो स्वाभाविक ही है कि  इस दौर में प्रतियोगिताएं अधिक है और अवसर का. ऐसे में एक दूसरे में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करना तो ठीक है, पर एक दूसरे को नीचा दिखाना, अपने सहभागी या सहपाठी को उत्साह देने के बजाय हतोत्साहित करना नैतिकता के मायने में एक गहरा अपराध है, क्यों कि जब कोई सहभागी ही बात नहीं समझेगा तो उससे नकारात्मक तनाव उभरना लाजिमी है, और ये भी उसके दिशाहीन यौवन में ताबूत कि कील के ही समान है.
          अगर हम समाज की  बात करें तो यहाँ कि स्थिति का फर्क तो तभी पड़ना शुरू होता है,  जब युवा अपने परिवार और सहभागियों से उपेक्षित हो जाता है, क्यों  कि अपनों में तन्हापन पाने के बाद ही कोई समाज की विभिन्नताओं में अपनी खुशियाँ तलाशता है, और ये तलाश किस ख़ुशी में अपना अक्ष ढूंढें, यहीं से एक गंभीर चिंता की लकीर मस्तिष्क पर उभरना लाजिमी है, इसके बावजूद हम इन लकीरों का कारण जानते हुए भी इसे खामोश ही रहते है, और दूसरों को कोषते हुए हमेशा ही अपने को पूर्वाग्रह से ग्रसित रखते है. लेकिन अगर हम अपनी नज़रों को थोडा सा गहराई में ले जाने का प्रयास करें तो पायेंगे कि इस उम्र की दहलीज तक आने तक युवा मन लगभग पवित्र होता है, और उपेक्षाओं के लगातार मानसिक प्रहार और अपेक्षाओं के बढ़ता बोझ ही उसे अनैतिक कार्यो में विलुप्त होने पर मजबूर करता है, और वैसे भी --
  "हर मनुष्य एक ख़ुशी और संतुष्टि  पाने के लिए जीता है और अगर उसे वही न मिले तो उसे पाने के लिए वो कुछ भी करना चाहता है पर खुश रहना चाहता है."
          रोज़मर्रा कि जिन्दगी में एक बात जो किसी के भी सपनो पर कुठाराघात करते हुए आमतौर पर सुनी जा सकती है. जब भी कोई अपने सपने, अपनी मंजिलो के रास्ते कुछ अलग और नया करके पाने की  कौशिश में जैसे ही पहला कदम बढाता है, तभी से उसे एक बात अपने दोस्तों, अपने पड़ोसियों, समाज, रिश्तेदारों और कभी कभी खुद माँ-बाप से ही लगातार सुनने को मिलती है...
"ऐसे कोई आगे बढ़ा है, इतनी सारी भीड़ पड़ी है, चले है सपने पूरे करने, अभी अक्ल तो है नहीं, जब खाली हाथ लौट के आएगा तब पता चलेगा कि सपने देखने में कोई टैक्स नहीं लगता.
          और जब वही उस राह पर कदम बढाते हुए अपनी मंजिलो को पा लेता है, सपनो को हकीकत की शक्ल दे देता है, तब उन्ही लोगों की जुबां कुछ इसी अंदाज़ में बोलती है....
"हमें तो पता ही था ये इसे पा ही लेगा, आखिर टैलेंट भी था, जूनून भी था, लग्न भी थी, तो कैसे नहीं मंजिल मिलती."
         अगर युवा की योग्यता को भांपकर शुरुआत से ही ऐसे हौंसले युवाओं को कदम कदम पर प्रोत्साहन और उपहार  के रूप में दिए जाते दे, तो यकीन कीजियेगा कि कोई भी कभी भी अनैतिक मार्ग पर दिखाई नहीं पड़ेगा और जिस संस्कारित समाज के आईने में हम अपने अक्ष को देखना और महसूस करना चाहते है, वो निश्चित ही स्वर्ग नहीं तो कम से कम स्वर्ग  की परिकल्पना से तो कम नहीं होगा.
          वैसे भी वेदमूर्ति पं श्री राम शर्मा आचार्य जी ने कहा है कि---
"अगर किसी को उपहार देने का मन हो तो आत्मविश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन उपहार में दें."
          ताकि आपका उपहार उस श्रेष्ठ व्यक्तित्व के निर्माण से हज़ारों लोगो तक विस्तारित हो. और हमारा भविष्य स्वर्णिम होने के साथ साथ खुशहाल भी हो. इसलिए मेरा अपने हर भारतवासी से एक हार्दिक आग्रह है कि इस युवा पीढ़ी को पूरे विश्व की सबसे शसक्त युवा शक्ति बनाने में उपेक्षा और अपेक्षा को दूर कर..~योग्यता पर यकीन..~ को अपने परिवार, समाज और देश के समुन्नत भविष्य के नीव का आधार बनाये. और आप यकीन मानिये ये नीव आने वाले कई युगों के लिए मजबूत आधार स्तम्भ बनेगी. और एक बात कि....

"अब मैं नहीं हम"

Tuesday, March 16, 2010

~विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
16 मार्च 2010 
"किसी का सुधार उपहास से नहीं, बल्कि उसे नए सिरे से सोचने और करने का अवसर देने से होता है."    पं श्री राम शर्मा आचार्य

Monday, March 15, 2010

नारी ही यदि है अज्ञान, तो देश कैसे बने महान

       आज कल एक चर्चा हर किसी के बीच बहस बन जाती है, माहिला आरक्षण बिल का नाम लेते ही हमारे लोक प्रतिनिधियों यानी सांसदों में कहा सुनी हो जाती है. लेकिन एक बात जो मैं सोचता हूँ कि क्या वाकई इस मुद्दे पर इतना बवाल होना जरूरी है..., क्या इस मुद्दे पर लोकतंत्र को तार तार करना जरूरी है. क्या किसी ने इस बेबुनियादी बवाल में शामिल होने से पहले, समाज में होने वाले इस ऐतहासिक बदलाव के क्षणों से सुनहरे भविष्य की आहट महसूस की..? और इस आहट को महसूस करने के लिए हमें जड़ों से पत्तो तक का सफ़र करनाहोगा.

       महिला, स्त्री ये शब्द सुनते ही हर किसी के जेहन बहुत सी तस्वीरें बनकर उभरती है, कोई आधी आबादी की व्याख्या रुपी गहराई में चला जाता है, तो कोई काम के वासना रूप को सोचने लगता है...तो कोई उसके पावन रूप पत्नी, बीवी, बहन के बारें सोचने लगता है. लेकिन हम उसे किसी भी रूप में देंखे, एक सम्मान कहीं न कहीं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मन में उभर ही आता है. वो बात अलग है कि समाज के दृष्टिभ्रम ने उसको उसका सम्मान देने के बजाय उसे एक उपभोग समझकर अपमान के कडवे घूँट पीने के लिए पग पग पर मजबूर किया, और आज उसी मजबूरी को महिलाओ का शसक्त शस्त्रीकरण का हाथियार बनाने का प्रयास किया जा रहा है. और महिला आरक्षण बिल को इसी महाभियान के तहेत पहली पूर्णाहूति माना जा सकता है.
लेकिन हमारे कुछ महत्वाकांक्षी नेता...जो इस पवित्र और सार्थक पहल में अपना रोड़ा अटकाने का प्रयास कर रहे है, क्या उन्हें इतना भी याद नहीं कि जिनके आरक्षण के लिए वो विरोध कर रहे है, आज उनका अस्तित्व उन्ही के अक्ष की देन है. क्या वो पल भर के लिए भी ये सोचने का प्रयत्न नहीं करते कि जब समाज में हमेशा उपेक्षाओ का सामना करते करते नारी ने इस सृष्टी को ऐसे ऐसी महान विभूतिया दी है जिनके अनुसरण ये समाज आगे बढ़ता है, अगर उन्हें एक अंश के रूप में भी समाज में उच्च स्थान दिया जाएगा तो वही नारी हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति को कितने और रत्न देगी. परन्तु सत्ता की अंधी दौड़  में जो परिवार तक को भुला बैठा है, उसे भला समाज के स्वर्णिम भविष्य से क्या लेना देना. उसे तो केवल अपने हिस्से की स्वार्थ की रोटियां चाहिए. लेकिन इस पूरे प्रकरण मैं कोई भी चाहे कुछ भी करें या कहें पर एक बात हमेशा ध्यान रखने की है..वो ये कि... 

"नारी इस ब्रह्माण्ड और सृष्टी की जनक और पोषक दोनों ही है, या यूं कहें हर मानव, हर परिवार, हर समाज और हर राष्ट्र की नीव नारी है, अगर हम अपनी नीव को मजबूत करने में सहयोगी बनेंगे तभी हमारा भविष्य भी मजबूत होगा, और इतिहास गवाह है की जब - जब नारी को अपनी योग्यता दिखाने का मौका मिला है , तब तब उसने अपने आप को पुरुषों से भी श्रेष्ठ प्रस्तुत किया है. चाहे वो लक्ष्मी बाई हो, पन्नाधाय हो, मदर टेरेसा हो या इंदिरा गाँधी...!! इसलिए मेरी अपने भारतवासियों और और उन् लोगो से, जो भी मेरा ब्लॉग पढ़ते है , उनसे ये निवेदन है कि इस ऐतहासिक पहल का खुलकर समर्थन करें, और हमारे भारत को समुन्नत राह की और अग्रसर करने में अपना छोटा ही सही मगर महत्त्वपूर्ण योगदान निभाएं."
~नारी ही यदि है अज्ञान, तो देश कैसे बने महान~

तो बस 
"अब मैं नहीं हम"

~विचार : जो युग परिवर्तन कर दें~
15 - मार्च-2010 

जीवन में ऊंचा उठने के चार सूत्र :-
 > ईमानदारी
> समझदारी 
> जिम्मेदारी
> बहादुरी
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

Friday, March 12, 2010

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
11-मार्च 2010 
"अधिकार नहीं, कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहे."

Thursday, March 11, 2010

~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
11-मार्च 2010 
"इस बात का महत्व कम है कि  हमें विरासत में क्या मिला, बल्कि महत्व इस बात का है कि हम विरासत में क्या छोड़ कर जायेंगे, इसलिए स्वयं अपनी विरासत का निर्माण करें."

Wednesday, March 10, 2010

"हर लम्हा हमारा है- हर कण हमारा है "

          कुँए में पानी के छोटे छोटे स्रोत इधर उधर से आकर गिरते है और उन्ही नगण्य सी इकाइयों के अनुदान से बना यशस्वी कुआँ असंख्य मनुष्यों, प्राणियों, वनस्पतियों की प्यास बुझाते रहने में असमर्थ होता है. कुँए का सारा यश उन जल धमनियों के आत्मदान का प्रतिफल है. यदि वे संकीर्ण होती, अपना बचाव सोचती, अपनी संपत्ति को मुफ्त में देने से कतराती तो इस संसार में एक भी कुआँ न बन सका होता और यहाँ सब कोई कभी के प्यास में तड़पकर अपना अस्तित्व गवां चुके होते.          
          संसार की सुख शांति, समृद्धि औत सुन्दरता एक यशस्वी कुँए की तरह हैं, जिसे सजीव रखने के लिए कुछ जल धमनियों का, उत्क्रष्ट आत्माओं का निरंतर अनुदान मिलते रहना आवश्यक है. इन दिनों भारी दुष्काल इसी सत्प्रवृत्ति में पड़ गया है. लोग अपनी व्यक्तिगत तृष्नाओं की पूर्ति में सिर से पाओं तक डुबे पड़े है. दान, पुण्य, पूजा-पाठ के नाम पर राई रत्ती जैसे उपकरण इस आशा में खरच करते है, कि एक अगले ही दिनों वह लाखों करोड़ों गुना होकर उन्हें मिल जाएगा. अविवेकी नर-पशु इस स्तर के हो तो बात समझ में आती है, पर भक्तिज्ञान, अध्यात्म, वेदांत, ब्रह्मज्ञान, तत्वदर्शन जैसे विषयों पर भारी माथापच्ची कर सकने में समर्थ लोग जब इस कसौटी पर कसे जाते है कि उनका अनुदान समाज के लिए क्या है..? तो उत्तर निराशा जनक ही मिलता है. ऐसा ब्रह्मज्ञान भला किसी का क्या हित साधन करेगा जिसने मनुष्य के हृदय में इतनी करुणा एवं श्रद्धा उत्पन्न न की हो कि विश्वमानव को उसके अनुदान कि महत्ती आवश्यकता है और वह उसे देना ही चाहिए.
          यहाँ ये बात स्मरण रखने योग्य है कि इस पूरी प्रकृति का चक्र एक दूसरे पर निर्भर है...जैसे समुद्र से बादल बनते है, बादल से वर्षा होती है, वर्षा से छोटी छोटी नदियाँ बनती है, और नदियों से समुद्र बनता है. ठीक इसी प्रकार पेड़ मनुष्य को ऑक्सिजन देते है, और मनुष्य द्वारा पेड़ों को कार्बन डाई ऑकसाईड मिलती है.
          इसलिए,
मानव होने का सही अर्थ यही है कि पृथ्वी पर उस परमात्मा द्वारा बनाये प्रकृति के अनमोल आपसी देने और लेने कि सुन्दर प्रक्रिया में अपने जीवन का सार ढूढने की कौशिश करें...इसके बाद "हर लम्हा हमारा है- हर कण हमारा है और हम उन् लम्हों के है-हम उन् कणों के हैं " .
~!!...यही मनाव जीवन के सारगर्भित हर अक्ष की दास्ताँ है...!!~

अब मैं नहीं "हम"
~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
10-मार्च 2010 
"लोकमंगल की सर्वकल्याणकारी सत्प्रवर्त्तियों से ही किसी व्यक्ति, देश, धर्म, समाज तथा संस्कृति की उत्कृष्टता नापी जा सकती है. खरे खोटे की पहचान भी इसी आधार पर होती है."                                                       पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

Tuesday, March 9, 2010

"Mann"

सच में...ऐसा ही होता है मन

मन...!! बहुत ही अजीब होता है ये मन ,

जो कभी दुनिया के ग़मों में खुशी पाता है, 
तो कभी अपनों के साथ भी तन्हा हो जाता हैं.

जो कभी हर मुकाम को जीत लेना चाहता है, 
तो कभी एक ठोकर से ही हिल जाता है.

जो कभी उल्लास से भर जाता है, 
तो कभी गम के सागर में भी खो जाता है.

जो कभी समय को अपने पीछे चलाता है, 
तो कभी समय एक छोटे से झोंके से हिल जाता है.

जो कभी परायों में भी अपनापन पाता है,
तो कभी अपनों में भी पराया बन जाता है.

जो कभी माया के मोह में घिर जाता है, 
तो कभी सूखी रोटी में भी आनंद पाता है.

जो कभी जज्बात संग बह जाता है, 
तो कभी पत्थर से भी सख्त हो जाता है.

जो कभी बुलंद हौसलों से भर जाता है,
तो कभी बिलकुल असहाय नज़र आता है.

जो कभी दुनिया के रंग में रंग जाता है, 
तो कभी हर रंग में भी अपने को बेरंगा पाता है.

जो कभी सब कुछ गंवाकर भी खुश रहना चाहता है,
तो कभी सब कुछ हड़प कर भी दुःख ही पाता है.

सच में...
मन
बहुत ही अजीब होता है ये मन....

आगे भी जारी रहेगी मन की ऐसी ढेरसारी पल पल बदलती दास्ताँ....

अब मैं नहीं "हम"


Always Be Positive



"हमेशा सकारात्मक रहे"

कभी कभी दिल गहराई से ज्यादा रोता है..और ये बात तब महसूस होती है, जब आपको किसी की शिद्दत से जरूरत महसूस होती है, और जिन्दगी में ना जाने ऐसे कितने लम्हे आते है, जब अपने सबसे पहले साथ छोड़कर चले जाते है. लेकिन जब हो जाती है इन्तहा उस परमात्मा के परीक्षा की, तब लोग समझते है की ये तो गया, पर उन अनजान और अज्ञानियों को क्या पता, यही से तो असली जीवन की राह शुरू होती है...जहाँ जिन्दगी हज़ार गमो के बाद खुलकर सांस लेती है.

अब मैं नहीं "हम"