Wednesday, March 10, 2010

"हर लम्हा हमारा है- हर कण हमारा है "

          कुँए में पानी के छोटे छोटे स्रोत इधर उधर से आकर गिरते है और उन्ही नगण्य सी इकाइयों के अनुदान से बना यशस्वी कुआँ असंख्य मनुष्यों, प्राणियों, वनस्पतियों की प्यास बुझाते रहने में असमर्थ होता है. कुँए का सारा यश उन जल धमनियों के आत्मदान का प्रतिफल है. यदि वे संकीर्ण होती, अपना बचाव सोचती, अपनी संपत्ति को मुफ्त में देने से कतराती तो इस संसार में एक भी कुआँ न बन सका होता और यहाँ सब कोई कभी के प्यास में तड़पकर अपना अस्तित्व गवां चुके होते.          
          संसार की सुख शांति, समृद्धि औत सुन्दरता एक यशस्वी कुँए की तरह हैं, जिसे सजीव रखने के लिए कुछ जल धमनियों का, उत्क्रष्ट आत्माओं का निरंतर अनुदान मिलते रहना आवश्यक है. इन दिनों भारी दुष्काल इसी सत्प्रवृत्ति में पड़ गया है. लोग अपनी व्यक्तिगत तृष्नाओं की पूर्ति में सिर से पाओं तक डुबे पड़े है. दान, पुण्य, पूजा-पाठ के नाम पर राई रत्ती जैसे उपकरण इस आशा में खरच करते है, कि एक अगले ही दिनों वह लाखों करोड़ों गुना होकर उन्हें मिल जाएगा. अविवेकी नर-पशु इस स्तर के हो तो बात समझ में आती है, पर भक्तिज्ञान, अध्यात्म, वेदांत, ब्रह्मज्ञान, तत्वदर्शन जैसे विषयों पर भारी माथापच्ची कर सकने में समर्थ लोग जब इस कसौटी पर कसे जाते है कि उनका अनुदान समाज के लिए क्या है..? तो उत्तर निराशा जनक ही मिलता है. ऐसा ब्रह्मज्ञान भला किसी का क्या हित साधन करेगा जिसने मनुष्य के हृदय में इतनी करुणा एवं श्रद्धा उत्पन्न न की हो कि विश्वमानव को उसके अनुदान कि महत्ती आवश्यकता है और वह उसे देना ही चाहिए.
          यहाँ ये बात स्मरण रखने योग्य है कि इस पूरी प्रकृति का चक्र एक दूसरे पर निर्भर है...जैसे समुद्र से बादल बनते है, बादल से वर्षा होती है, वर्षा से छोटी छोटी नदियाँ बनती है, और नदियों से समुद्र बनता है. ठीक इसी प्रकार पेड़ मनुष्य को ऑक्सिजन देते है, और मनुष्य द्वारा पेड़ों को कार्बन डाई ऑकसाईड मिलती है.
          इसलिए,
मानव होने का सही अर्थ यही है कि पृथ्वी पर उस परमात्मा द्वारा बनाये प्रकृति के अनमोल आपसी देने और लेने कि सुन्दर प्रक्रिया में अपने जीवन का सार ढूढने की कौशिश करें...इसके बाद "हर लम्हा हमारा है- हर कण हमारा है और हम उन् लम्हों के है-हम उन् कणों के हैं " .
~!!...यही मनाव जीवन के सारगर्भित हर अक्ष की दास्ताँ है...!!~

अब मैं नहीं "हम"
~ विचार : जो युग परिवर्तन कर दें ~
10-मार्च 2010 
"लोकमंगल की सर्वकल्याणकारी सत्प्रवर्त्तियों से ही किसी व्यक्ति, देश, धर्म, समाज तथा संस्कृति की उत्कृष्टता नापी जा सकती है. खरे खोटे की पहचान भी इसी आधार पर होती है."                                                       पं. श्रीराम शर्मा आचार्य